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कविता: रेलवे लाइन पर बिखरे रोटी के कुछ टुकड़े

लेखक लिखते हैं, "रेलव𝓰े लाइन पर बिखरे रोटी के कुछ टुकड़ों में मुझे एक देश का जला हुआ चेहरा नजर आ रहा है।"

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आंखों को दिखाई न देने वाला एक कीड़ा
पृथ्वी को चबा डाल रहा है।

भय की सुरंग के भीतर
अब त्रस्त है जीवन

रेलवे स्टेशन पर हर दिन
खंबे की तरह खड़ा वह भिकारी
जिसकी टोकरी में सिक्के फेंक कर 
मैं फुर्ती से निकल जाता था
अब उसी के बारे में बहुत ज्यादा सोच रहा हूं मैं

उस दिन कोरपुट से लौटते समय
झाड़ू लगाकर हाथ फैलाए
उस खाली बदन बच्चे 
का रूआंसा चेहरा मुझे 
अब चिंता में डाल रहा है। 

पहिया घूमने से हमारी हांडी में 
चावल उबलता है
कहा था एक ऑटो वाले ने
कहते समय अंधेरे में
दप दप जल रही थी आंखें उसकी।

धरती के सीने पर कान लगाने से
कई मौतों की पदचाप सुनाई पड़ रही ही। 
अपने विशिप्त अस्तित्व को समेटकर 
पीठ पर लादकर पैदल लौट रहे हैं
चमड़ी उधड़ गये अनगिनत पांव।

बेदखल जीवन
कपास की तरह हवा में उड़ रहा है 

बहुत दिन हो गया है
शर्म से मैने देखना छोड़ दिया है।

रेलवे लाइन पर बिखरे रोटी के
कुछ टुकड़ों में मुझे 
एक देश का जला हुआ चेहरा नजर आ रहा है।